Tuesday 1 November 2011

अन्ना का गन्ना


अन्ना का गन्ना, रस की मदिरा
ये लोकप्रियता का जादू था, राष्ट्र भक्ति का ज़ज़्बा था, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से जुड़ी तकलीफ़ों की प्रतिक्रिया थी या मैनेजमेंट का इलेक्ट्रोनिक बम था, यह सोच और बहस के मुद्दे हो सकते हैं और बुद्धिजीवी चाहें तो वर्षोें इस पर बहस भी कर सकते हैं लेकिन एक बात तय है कि अन्ना का गन्ना राष्ट्रीय झण्डे से सज्जित था और उसके रस की मदिरा से पूरा देश झूम रहा था.
प्रिंट मीडिया के महत्व को निरंतर स्वीकारने के बावजूद इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रभाव और परिणाम से हम सभी दो-चार हुए हैं. शायद नतमस्तक भी. वर्तमान अतिशीघ्र अतीत बन जाता है और सामान्य जन उसे शीघ्र ही विस्मृत कर देते हैं. दूसरी आज़ादी के नारे और माहौल का ऐसा वातावरण (इससे कहीं अधिक) उस समय भी निर्मित हुआ था जब 1977 में केन्द्र में जनता सरकार की स्थापना हुई और आपात काल की समाप्ति की घोषणा.उसका जो हश्र हुआ उससे वर्तमान पीढ़ी तो अवगत है ही नहीं पिछली पीढ़ी भी लगभग उसे भूल चुकी है, वो दृश्य और उस समय की तमाम यादें मेरे ज़हन में आज भी हैं, कहते हैं इतिहास अपने आप को दोहराता है उस क्रांति के अगुवा जय प्रकाश नारायण थे और आज के अन्ना हजारे. स्थितियों में ज्यादा फर्क नहीं है हक़ीक़त यह है कि तब कहीं अधिक विषम परिस्थितियां थीं आज तो लोग मंच से संसद और सांसद दोनों को खुले आम कोस रहे थे और कोई न उनको रोक रहा था और न उनका कोई कुछ बिगाड़ पा रहा था. हां मुद्दे अलग हो सकते हैं और पीछे लौटंे तो महात्मा गांधी के समय में भी ऐसा ही वातावरण निर्मित हुआ होगा, सर्वमान्य नेतृत्व सफलता तो हासिल करता है लेकिन उसके बाद ? आज़ादी के बाद गांधी की बात कांग्रेस नेताओं ने कितनी मानी? दूसरी आज़ादी में जनता सरकार ने शपथ ग्रहण करने के बाद जे.पी. के साथ कैसा व्यवहार किया ? जीते जी उनकी मृत्यु की घोषणा संसद में करदी गई उनकी मृत्यु की पुष्टि के लिए तनिक भी समय व्यर्थ नहीं किया गया, और अब क्या होगा ? सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि हम लोग जिस भावना से किसी आंदोलन या क्रांति का सूत्रपात करते हैं अंततः क्या भूमिका निभाते हैं ? अन्ना का काम तो अन्ना ने कर दिया शायद उनके सहयोगी भी उनके सम्पूर्ण उपयोग के बाद उनको विस्मृत कर दें पर हम क्या करेंगे ? यह सवाल ज़िंदा रहे, ज़हनों में मशालों की तरह जलता रहे और समाज और देश के लिए कोई स्वस्थ्य और लाभदायी परिणाम सामने आए यही इस आंदोलन की उपलब्धि होगी. बुद्धिजीवी अगर हम स्वयं को मानते हैं तो जन-जन में इसकी ज्वाला जलायें रखें यही हमारा उत्तरदायित्व है और यही रचनाकर्म का उद्देश्य. डॉ.महेन्द्र अग्रवाल

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