Friday 11 November 2011

याद बचपन की


शब्द संकोच में माथे पे, पड़े बल की तरह.
अर्थ अपनी जगह क़ायम रहे आंचल की तरह.
मन की गहराइयां भरती गईं तुमसे मिलकर
मेरा अहसास पसरता गया दलदल की तरह.
आज छू पाये हैं,‘उमराव’ के होठों की सतह
शेर भटके थे ‘शहरयार’ की ग़ज़ल की तरह.
याद बचपन की, तेरा साथ, सफर के लमहे
मन के मन्दिर में महकते रहे सन्दल की तरह
हां अभी भी मेरी आंखों में बसे हैं सपने
अपनी उंगली से लगाये हुए काजल की तरह.

1 comment:






  1. आदरणीय डॉ.महेन्द्र कुमार अग्रवाल जी
    सस्नेहाभिवादन !
    सुस्वागतम् !!

    आपको यहां अंतर्जाल पर पा'कर हार्दिक प्रसन्न्नता हुई …

    ब्लॉग का शुभारंभ बहुत अच्छी ग़ज़ल से हुआ है -
    आज छू पाये हैं,‘उमराव’ के होठों की सतह
    शेर भटके थे ‘शहरयार’ की ग़ज़ल की तरह

    क्या बात है ! बहुत ख़ूबसूरत शे'र है …

    याद बचपन की, तेरा साथ, सफर के लमहे
    मन के मंदिर में महकते रहे संदल की तरह

    पूरी ग़ज़ल ही काबिले-ता'रीफ़ है …

    बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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